सम्मेदशिखर में पुरातात्त्विक प्रतिमाएँ
झारखण्ड में गिरीडीह जिला के शास्वत तीर्थ सम्मेदशिखर को कौन नहीं जानता। यहाँ से चौबीस तीर्थंकरों की श्रृंखला के बीस तीर्थंकर निर्वाण को प्राप्त हुए, साथ ही करोड़ों मुनिराजों ने भी यहाँ से मुक्ति प्राप्त की, इस कारण यह सर्वपुनीत व सर्वोच्च तीर्थ माना जाता है। यहाँ का कंकड़-कंकड़ पूज्य है। यहाँ के प्रत्येक स्थान से दिव्य देहधारी देवों द्वारा वंदित मुनिराज मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। सम्मेदशिखर के विषय में कहा जाता है- भाव सहित वंदे जो कोई । ताहि नरक पशु गति नहिं होई ।। यहाँ की एक वंदना करने से भी नरक और तिर्यंच गति का बंध नहीं होता, वंदना भाव सहित हो तो श्रेयस्कर है।
श्री सम्मेदशिखरजी के महत्व को दृष्टिंगत रखते हुए यहाँ पुरातत्त्व का भण्डार होना चाहिए, प्राचीन अनेक प्रतिमाएँ व मंदिर विद्यमान होना चाहिए; किन्तु आश्चर्यजनक रूप से अपेक्षाकृत सामग्री यहाँ अनुपलब्ध है। अथवा कुछ टेकरियाँ यदि खोदीं गईं या भूकम्प आदि से स्खलित हुईं तो आनेक प्राचीन मूर्तियाँ और बड़े-बड़े जिनालयों का समूह प्राप्त हो जाए इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
श्री सम्मेदशिखर जी की वंदनार्थ तो हम कई बार गये, किन्तु प्राचीन प्रतिमाओं के सर्वेक्षण- अन्वेषण हेतु हम सन् 2011 में गये और अपने कैमरे से ही अधिकतर प्रतिमाओं के व उनकी प्रशस्तियों के चित्र लिये हैं।
वर्तमान में सांगोपांग प्रतिष्ठित मूर्तियों में बीसपंथी कोठी मधुबन की संवत् 1800 की मूर्तियाँ ही प्राप्त होती हैं, जिनकी पूज्य भट्टारकों ने प्रतिष्ठा करवाई। किन्तु जिनमें कोई प्रशस्ति नहीं है ऐसीं कुछ प्राचीन लगभग 10वीं-12वीं शताब्दी की भी प्रतिमाएँ मधुवन के जिनालयों में स्थापित हैं, वे इस प्रकार हैं-
श्री दिगम्बर जैन तेरापंथी कोठी, मधुवन के चौबीसी जिनालय में तीन महत्वपूर्ण प्रतिमाएँ स्थापित हैं, किसी पर लेख या प्रशस्ति नहीं है-
1. तीर्थंकर वृषभनाथ-
यह प्रतिमा तेरापंथी कोठी, मधुबन के चौबीसी जिनालय में स्थापित है। श्याम पाषाण में निर्मित यह कायोत्सर्ग समपादासन में सपरिकर प्रतिमा है। तीर्थंकर को विकसित पù पर अवस्थित दर्शाया गया है। पादपीठ में कुछ बेलबूटे उत्कीर्णित हैं, दायीं ओर लांछन वृषभ बैठा हुआ है उसके पीछे एक आराधिका गवासन में बैठी दर्शायी गई है, जिसके अन्जलिबद्ध करों में पूजाद्रव्य है। पादपीठ में बायीं ओर दो बड़े फल रखे हैं; विरुद्धाभिमुख एक लघु पश्वाकृति है जो अस्पष्ट है। इस नग्न दिगम्बर प्रतिमा के गले में त्रिवली है। इसके मस्तक पर जटामुकुट बहुत सुन्दर बना हुआ है, केशविन्यास की यह कला अवलोकनीय है, कुछ कलात्मक केशलटिकाएँ स्कंधों पर अवलम्बित हैं। प्रभावल भी दोहरी परिधियों में बना है जो परम्परागत से हटकर है।
मुख्य जिन के ही पादपीठ पर उनकेे समानान्तर में पार्श्वों में चामरधारी उत्कीर्णित हैं, इनके स्वतंत्र कमलासन हैं। द्विभंगासन में खड़े इन चमरियों का एक हाथ जंघा पर टेके हुए और दूसरे हाथ में चॅवर धारण किये हुए हैं। इनके चामर धारण का शास्त्रीय अंकन ध्यान देने योग्य है, प्रायः दशवीं शताब्दी और बाद की प्रतिमाओं के चामरवाहकों के दायें-बायें या बायें-दायें हाथ में चामर धारण किया हुए दर्शाया जाता है, जिससे कला में सौन्दर्य लाया जा सके, किन्तु इनके दाहिने-दाहिने हाथ में चामर धारण दर्शाया गया है, इससे प्रतिमा की दशवीं शताब्दी से भी अधिक प्राचीनता पर प्राकाश पड़ता है।
खाली स्थानों में पुष्प और बेलबूटे बनाए गये हैं। शिर के दोनों ओर आकाश में गमन करते हुए माल्यधारी देव हैं, इनके केश विन्यास के जूड़े से प्रतीत होता है दोनों ओर ही देवियाँ हैं। शिरोभाग में त्रिछत्र है, उस पर जैन मूर्त्यंकन की परम्परा से हट कर अशोक वृक्ष के पुष्प-पत्र हैं। माल्यधारियों के ऊपर के स्थान पर दोनों ओर दुन्दुभिवादकों के वाद्य व हथेलियाँ उत्कीर्णित हैं। दायें तरफ के हाथ झाँझ बजा रहे हैं, तो बायें तरफ के ढोलक पर थाप दे रहे हैं। इनमें एक और विशेषता है कि वाद्यों के ऊपर त्रिछत्र के समान आकार हैं, किन्तु तीन वलय के स्थान पर एक पर चार और एक पर पाँच वलय शिल्पित हैं।
2. तीर्थंकर महावीर प्रतिमा-
3. तीर्थंकर नेमिनाथ प्रतिमा-
4. तीर्थंकर प्रतिमा-
यह प्रतिमा श्री सुमतिसागर त्सागी व्रती आश्रम मधुबन के जिनालय में स्थापित है। पुरातात्त्विक दृष्टि से यह तीर्थंकर प्रतिमा बहुत महत्वपूर्ण है। कमलासनस्थ कायोत्सर्ग प्रतिमा के पादपीठ पर कमल के नीचे मृगदाव के जैसा एक मृग (हिरण) बना हुआ प्रतीत होता है। जो शांतिनाथ भगवान का चिह्न है। कर्ण स्कंधों को स्पर्शित हैं, सुन्दर प्रभावल शिल्पित है, त्रिछत्र भग्न है। परिकर में दाहिने -दाहिने हाथों में चॅवर धारण किये हुए चामर वाहक परिचारक देव हैं, ऊपर यथा स्थान माल्यधारी, तदोपरि दुन्दुभिवादक हैं। इस प्रतिमा के मध्य के परिकर में चँवरधारी देवों के ऊपर चार-चार यक्ष-यक्षियाँ अंकित हैं। दाहिने पार्श्व की एक यक्षी के हाथ में वीणा और उसी पंक्ति की एक यक्षी की गोद में शिशु जान पड़ता है, जिससे ये सरस्वती व अम्बिका प्रतीत होतीं हैं। परिकर में अष्टमातृकाएँ, नवग्रह आदि तो प्राप्त होती हैं; किन्तु परिकर में इस तरह कीं आठ आकृतियाँ दुर्लभ हैं। इस प्रतिमा का अलग से अध्ययन किया जाना शेष है।
इस तरह मधुबन सम्मेदशिखरजी में पाषाण की उक्त चार प्रतिमाएँ ही हमें प्राप्त हुईं हैं। शेष चार-पाँच पन्द्रहवीं शताब्दी जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित और उसके बाद की अर्वाचीन प्रतिमाएँ हैं।
-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
22/2, रामगंज, जिन्सी, इन्दौर
मो 9826091247